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पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धि जीवियों द्वारा बौद्धिक क्रांति के लिये संगठन
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Thursday, June 28, 2018
Monday, June 18, 2018
हिन्दू का मतलब भारतीय, इंडियन
जब हिन्दू कोई धर्म नहीं यह अब सब मानते हैं जिसे माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी स्पष्ट कर दिया है तब हिन्दू को धर्म के कालम में लिखना गलत है । धर्म आपका बौद्ध, सिख, ईसाई, सनातन धर्म ,ब्राह्मण धर्म आदि कोई भी हो सकता है ।
कुछ लोगों का कहना हिन्दू एक हो जाओ या हिन्दू खतरे में है यह सब बकवास है और दिग्भ्रमित करने वाले हैं । जब हिन्दू भारतीय का पर्याय है तब भारतीय तो रहेंगे ही । धर्म कौन रहे यह बात दीगर है ।
आइये हम पुन: चिन्तन करें और देश से भय और भ्रम का वातावरण दूर करें
Saturday, June 9, 2018
किसानों की गरीबी का एक हल - शहरीकरण
किसी भी देश के विकास का एक पैमाना शहरीकरण भी है । जो देश अपना जितना ही शहरीकरण कर चुका होगा वह उतना ही विकसित राष्ट्र की श्रेणी में पहुंच जाता है । उदाहरण के लिये अमेरिका और यूरोप के राष्ट्र अपना 80% तक शहरीकरण कर चुके हैं, यानी वहां ग्रामीण जनसंख्या मात्र 20% या इससे कम है । इसलिए ये सर्वाधिक विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं ।इसी श्रेणी में कतिपय अन्य देश भी हैं जिनका शहरी करण 80% से अधिक हो चुका है और वे विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आते हैं ।
इसी प्रकार शहरीकरण का पैमाना देखते जाइये और अमुक देश विकसित है, विकासशील है या अविकसित आप जान जायेंगे । उदाहरण के लिये चीन । यहां 50% शहरी करण हुआ है तभी अमेरिका से कम विकसित है । इसका 50% ग्रामीण क्षेत्र इसे पीछे की ओर खींचता है । अब अपने देश के शहरीकरण के आंकड़े देखते हैं । यहां 30% जनसंख्या शहरी हो पाई है यानी शहरीकरण मात्र 30% ,अर्थात् 70% ग्रामीण जनसंख्या अपने देश में है । इसलिए शहरीकरण 30% होने से अपने देश के विकास की स्थित क्या है? विकासशील देश कहेंगे तभी ।
अब ग्रामीण जनसंख्या जो यहां 70% है को 30% तक लाने का हमारा लक्ष्य होना चाहिए । यानी कि लगभग 40% जनसंख्या को हमे ग्रामीण से शहरी बनाना है । हम कह सकते हैं कि 70% शहरीकरण के लक्ष्य को पाने के लिये हमे 40% ग्रामीण आबादी को शहरों, कस्बों मे लाना होगा और यहां रोजगार, तथा सुविधाएं सृजित करनी होंगी । इससे भारत के गांवों को विशेषकर किसानों और खेतिहर मजदूरों को बहुत लाभ होगा ।
खेती मे निर्भरता कम होगी और वहीं खेती अधिक लाभकारी हो जायेगी । किसानों की आज की भयानक स्थिति तो एकदम हल हो जायेगी । ग्रामीण भारत खुशहाल होगा, साथ ही सम्पूर्ण देश का विकास होने पर वह विकसित राष्ट्र की श्रेणी में आ जायेगा । तब के भारत में एक भी किसान आत्महत्या नहीं करेगा । न आंदोलन की बात आयेगी ।
देश की सरकारों को चाहिए कि प्राथमिकता से देश का शहरीकरण तेजी से करें और राष्ट्र को विकसित राष्ट्र की श्रेणी में पहुंचा दें । किसान और समग्र ग्रामीण भारत खुशहाल होगा तथा देश विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जायेगा ।
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राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
Facebook /Farmer -किसान
Friday, June 8, 2018
बौद्धिक संघ, भारत : बौद्घिक क्रांति के जनक -- घरेलू पुस्तकालय
बौद्धिक संघ, भारत : बौद्घिक क्रांति के जनक -- घरेलू पुस्तकालय: बौद्घिक संघ, भारत एक स्वैच्छिक सामाजिक बुद्धि जीवियों का संगठन है । इसके अंतर्गत " घरेलू पुस्तकालय योजना " संचालित है...
बौद्घिक क्रांति के जनक -- घरेलू पुस्तकालय
बौद्घिक संघ, भारत एक स्वैच्छिक सामाजिक बुद्धि जीवियों का संगठन है । इसके अंतर्गत " घरेलू पुस्तकालय योजना " संचालित है । बौद्घिक संघ, भारत केवल प्रेरणा देने का कार्यक्रम चलाता है जिससे लोग अपने घर, परिवार को ग्यान के प्रकाश से आलोकित कर दें । विभिन्न परिवार तरह तरह के कर्मकांडों, रीतिरिवाजों में उलझ कर बौद्धिक उन्नति से दूर हो जाते हैं जब कि जब कभी वे स्वयं स्कूल, कालेज गये थे तो इन्हीं पुस्तकों के सहारे बढ़े थे । लेखनी थाम कर, कलम पकड़ कर ग्यान के प्रकाश को देखा था, पर सब भूल गये रोजी रोटी और कर्मकांडों के चक्कर में ।
बौद्घिक संघ, भारत यह कभी नहीं कहता कि सारे कर्मकांड बेकार हैं, नहीं करने चाहिये । हां यह जरूर कहता है कि आस्था के नाम पर कुछ भी, कभी भी करने के पहले वैग्यानिक दृष्टि से भी समझें , तब करें । अनावश्यक समय न बरबाद करें । जिस कलम ने आपको शिक्षा दी, लिखना सिखाया उसको भुला कर न जाने किसकी किसकी पूजा करने लगे, आराधना करने लगे, वन्दना करने लगे । देवी देवताओं का क्या योगदान रहा? चिन्तन करें तो सही । यह आपकी मान्यताएँ भर हैं । सनातनी धर्म, बुद्ध, जैन, इस्लाम, ईसाई, सिख सब अलग अलग पूजा पद्धतियों में लगे हैं लेकिन कोई भी धर्म, सम्प्रदाय हो सबकी कलम एक है लेखनी एक है । तो पूजा ही करनी है, वन्दना ही करनी है तो लेखनी की करिये, कलम की करिये । पुस्तकों को घर में सजायिये, पढ़िये । ग्यान लीजिये, दीजिये । "घरेलू पुस्तकालय " बनाइये ।
क्या करना है जरा सा यह भी समझ लें । जैसे लेखक, कवि के घर में पुस्तकें जरूर होती हैं वैसे ही आप अपने शयन कक्ष, बैठक कक्ष या ड्राइंग रूम में कम से कम एक अलमारी और रैक में कुछ पुस्तकें, पत्रिकायें, समाचार पत्र, यदि हो सके टैबलेट, आईपैड, लैपटॉप, कम्प्यूटर जरूर रखें । एक कलम दान कुछ कलमें रखें और कुछ सादे कागज, रजिस्टर आदि लिखने के लिये । यहां 24 घंटे में कम से कम एक घंटे बैठ कर चिन्तन, पठन, लेखन आदि करें । यही सबसे बड़ी साधना है, उपासना है । फिर भी आप पूजा पाठ करने वाले हैं और बिना उसके अधूरा सा लगता है तो इन पुस्तकों को प्रतिदिन एक दीपक दिखा दें, जला दें, अगर बत्ती जला दें । लेखनी की वन्दना कर दें ।
ग्यान कांड और कर्मकांड दोनो से गये साथ ही भक्ति कांड भी । घर घर पुस्तकालय से बौद्घिक प्रगति तेजी से होगी । नई नई पुस्तकें लिखी जांयेगी, पढ़ी जांयेगी । पुस्तक क्रांति होगी । देश को ग्यान के उच्च शिखर पर ले जाना है तो बौद्धिक संघ, भारत की घरेलू पुस्तकालय योजना को अपनाना है ।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी रुचि के अनुसार, जरूरत के अनुसार पुस्तकें, पत्रिकायें रख सकता है । समय समय पर बदल सकता है । देखते देखते छोटा सा घरेलू पुस्तकालय आपको पाठक से लेखक बना सकता है । आपके व्यवसाय में, नौकरी में चार चांद लगा सकता है । समाज मे एक सम्मान जनक स्थान दिला सकता है । एक बौद्घिक क्रांति ला सकता है । घर घर में हुई बौद्घिक क्रांति पूरे समाज, देश में बौद्धिक क्रांति पैदा कर देगी ।
जय हिन्द! जय भारत!! जय बौद्घिक संघ !!!
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राजकुमार सचान "होरी "
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
Facebook /bauddhiksangh
Thursday, June 7, 2018
किसान आंदोलन प्रतिक्रियायें और उनके उत्तर (भाग2)
किसान आंदोलन प्रतिक्रियायें और उनके उत्तर --लेख के प्रथम भाग में इस बात का उत्तर दिया था कि आंदोलन करने वाले किया तो सूट बूट में हैं । इसी को आगे बढ़ाते हैं । कुछ देखने वालों ने यहां तक कहा कि आंदोलनकारी बड़ी बड़ी गाड़ियों में आये ये किसान नहीं हो सकते । ये नेता हैं जो विपक्षी पार्टी के हैं ।
दुनियांमे बहुत सारे आंदोलन होते हैं जिनमे आंदोलन करने वाले तो होते ही हैं साथ में उनसे सहानुभूति रखने वाले भी आ जाते हैं । यह किसानों के आंदोलन में भी हो रहा है । पर कुछ शहरी, कुछ सत्ता के पक्षधर ऐसे पेश आये किसानों से कि सिद्ध हो गया कि उनको कथित अन्नदाता से सहानुभूति तो दूर बल्कि नफरत यहां तक है कि जो उनसे सहानुभूति व्यक्त करने जायें वे भी बुरे । क्या किसान जिसको दिखावटी ही सही तुम अन्नदाता कहते हो को बुरे दिनों में, संघर्ष में साथ देना बुरा है? पाप है?
होना तो यह चाहिये था कि जिसको देश अपना अन्नदाता मानता है उसे आंदोलन ही न करना पड़ता और अगर करना पड़ा तो सत्ता पक्ष और विपक्ष आगे आ कर बढ़ चढ़ कर साथ देता । कम से जो मजाक उड़ाया गया, भावनात्मक चोट पहुंचायी गयी वह तो न होता । क्या जो आंदोलन में साथ दे रहे थे और किसान नहीं थे कोई कानून है कि वे साथ देने नहीं आ सकते थे? या अगर आते भी तो पैदल आते अपनी मोटरसाइकिल, कार, बस से न आते?? यह सोच गिरावट की पराकाष्ठा है । किसान का लगता है कोई नहीं । उसके संगठनों में ताकत नहीं ।
आंदोलन की एक अन्य प्रतिक्रिया है कि सच्चा किसान अपनी सब्जियां, दूध, अनाज सड़कों पर फेंक नहीं सकता । ये किसान हो ही नहीं सकते । ये फर्जी हैं । किसी न किसी राजनैतिक दल के लोग हैं, नेता हैं । सामान्य दिनों मे किसान ही क्या कोई भी अपनी खून पसीने की कमाई बरबाद नहीं कर सकता, सड़कों में फेंक नहीं सकता । परन्तु आलोचना करने वाले यह भूल गये कि किसान की आमदनी न होने से कितना पीड़ित है, दुखी है । हर साल हजारों की संख्या में आत्महत्या करता है तो क्या ऐसी भयंकर स्थिति में वह कुछ भी उन्माद में नहीं कर सकता?
उन्माद में व्यक्ति तो सब होश हवास भूल कर पहले अपने प्यारे बच्चों को, पत्नी को मार कर खुद भी आत्महत्या कर बैठता है । ये तो केवल अपना सामान सड़कों में फेंकना तक था । एक किसान एक जगह अनशन पर बैठा और मर गया । यह क्या है ? अरे शहरी बाबुओं, किसान विरोधियों! कुछ तो लिहाज करो, शर्म करो, अगर किसान का पैदा किया हुआ कुछ भी खाते हो । किसान की हाय से बचो । जिस देश ने अपने किसानों, अन्नदाताओं का पेट नहीं भरा वह कभी पनप ही नहीं सकता । देश के किसान को उसकी फसल का पैसा न दे कर विदेश से अनाज, सब्जियां, चीनी आदि खरीद कर किसान के पेट मे लात मारना कभी किसी के लिए सुखकर नहीं हुआ ।
किसानों की पीड़ा सरकारें समझें तो पर दलगत राजनीति और शहरी समाज समझने नहीं देता जिनको किसानों का दु:ख, दर्द बनावटी और ढोंग लगता है । किसानों के पास आज कोई टिकैत नहीं है । आंदोलन तो आज नहीं कल खत्म होगा ही पर किसान के विरोधियों ! अपने लिये नर्क मत तैयार करो । किसान से भी यही विनती है कि वह देखे कि घाटे की खेती कब तक करेगा? शहरी तो एक दो साल भी खेती न करेगा जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी वह कर रहा है ,मर रहा है । ----------------
( क्रमश: आगे जारी)
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राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
भारतीय साहित्य अकादमी का ट्रेड मार्क रजिस्टर्ड
बौद्घिक संघ, भारत के अधीन चार मुख्य आनुषंगिक संगठन हैं ---
1 भारतीय साहित्य अकादमी
2 भारतीय पत्रकार संघ
3 पिछड़ा वर्ग लेखक संघ
4 भारतीय काव्य धारा
इनका विवरण वेब साइट www.bauddhiksangh.com में है ।
साहित्य अकादमी भारत सरकार की संस्था है और हिन्दी साहित्य अकादमी दिल्ली सरकार की । लेकिन भारतीय साहित्य अकादमी अपनी बौद्घिक संघ, भारत के अधीन संस्था है जिसका ट्रेड मार्क रजिस्रट्रेशन भारत सरकार के ट्रेड मार्क विभाग, मुम्बई से हो कर आ चुका है । इस नाम का टीएम और (आर) अब अपने पास है । बधाई समस्त को ।
इस वर्ष के भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार अपनी संस्था से दिल्ली में दिये जायेंगे । प्रविष्टियां शीघ्र मांगी जायेंगी ।
राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
1 भारतीय साहित्य अकादमी
2 भारतीय पत्रकार संघ
3 पिछड़ा वर्ग लेखक संघ
4 भारतीय काव्य धारा
इनका विवरण वेब साइट www.bauddhiksangh.com में है ।
साहित्य अकादमी भारत सरकार की संस्था है और हिन्दी साहित्य अकादमी दिल्ली सरकार की । लेकिन भारतीय साहित्य अकादमी अपनी बौद्घिक संघ, भारत के अधीन संस्था है जिसका ट्रेड मार्क रजिस्रट्रेशन भारत सरकार के ट्रेड मार्क विभाग, मुम्बई से हो कर आ चुका है । इस नाम का टीएम और (आर) अब अपने पास है । बधाई समस्त को ।
इस वर्ष के भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार अपनी संस्था से दिल्ली में दिये जायेंगे । प्रविष्टियां शीघ्र मांगी जायेंगी ।
राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
Wednesday, June 6, 2018
किसानों के लिये अर्ज किया है
वे जानते हैं कि घाटा ही घाटा है खेती में,
तभी तो शहरी लाट साहब खेती नहीं करते ।
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कभी किसान पहने हो सलीके से कपड़े,
शहरी बाबुओं के सीने में सांप लोट जाते हैं ।
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तू फटेहाल रह, कर चाहे खेतों में खुदकुशी,
होरी यही नियति है ,तू भारतीय किसान है ।
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तेरे संघर्षों में साथ दे कोई गवारा नहीं,
अजीब लोग हैं ये, ये ही अन्नदाता कहते हैं ।
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राजकुमार सचान "होरी "
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
Tuesday, June 5, 2018
बौद्धिक संघ, भारत : देवालय नहीं, पुस्तकालय
बौद्धिक संघ, भारत : देवालय नहीं, पुस्तकालय: देवालय नहीं पुस्तकालय पुस्तकें ज्ञान का भण्डार हैं / यद्यपि अब डिजिटल युग में ज्ञान के नए नए स...
किसान आंदोलन प्रतिक्रियायें और उनके उत्तर
इस बार का किसान आंदोलन हो या किसी समय का उस पर कैसी कैसी प्रतिक्रियायें होती हैं, यह देखना, समझना बहुत जरूरी है और अनिवार्य भी । इन प्रतिक्रियाओं की मूल भावना से आपको किसान का दु:खद जीवन क्यों है और उसकी समस्यायें बदस्तूर क्यों बनी हुई हैं? को जानने में बहुत मदद मिलेगी । हां, उन्हें ही मदद मिलेगी किसान को समझने में जो उससे किंचित लगाव रखते हैं । उनसे लगाव न रखने वालों या नफरत करने वालों को तो मेरे लेख से मदद तो न मिलेगी अलबत्ता उनको मुझ पर और किसानों पर नये सिरे से गुबार निकालने का मौका जरूर मिलेगा । यह तो मैं चाहूंगा भी ।
एक प्रतिक्रिया ----- "ये किसान नहीं हो सकते, ये तो सूट बूट में हैं । " यह अलग बात है कि यही आलोचक जब बदन मे बिना कपड़े या लंगोटी पहन कर किसान आता है आंदोलन में (जैसे तमिलनाडु उदाहरण) तो कहने लगते हैं कि यह किसान है ही नहीं आदि आदि । अब इन आलोचकों की मंशा समझ लेना जरूरी है । इनकी निगाह में किसान वह है जो एकदम फटेहाल हो, घर में भी और बाहर निकले तब भी । इन्हें पता है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी जब बाहर किसी कार्यक्रम में जाता है तो भरसक कुछ कायदे के कपड़े पहन कर ही निकलता है । परन्तु किसानों का चित्र जो इनके मन में कवियों, लेखकों, चित्रकारों ने बैठा दिया है उसके अनुसार तो किसान वही जो हमेशा फटेहाल हो । भले चाहे शादी विवाह, तीज त्यौहार हो पर वह तब भी दीन हीन, मैला कुचैला, अर्ध नग्न, फटे पुराने कपड़ों में ही हो तभी किसान होगा । यह बात नहीं कि इन्हें कोई सहानुभूति है किसान से बल्कि ज्यादातर यह वर्ग उनसे नफरत ही करता है, लगाव तो बहुत दूर की बात है ।
यह वर्ग फिर ऐसा क्यों सोचता है? असल में यह वर्ग किसान को इसी रूप में देखने का आदी है । चाहे चित्र में और चाहे जीवित रूप में । यह सही है कि शहर में जो फुटपाथ मे धंधा करते हैं, अधिकांश किसानों की आय उनसे बहुत कम है और यह भी सही है कि जब वह खेती के कामों में लगा होता है तो पुराने ही कपड़े पहनता है । लेकिन जब आंदोलन करे, किसी कार्यक्रम में जाय तो क्या वह एकाध कपड़े भी शरीर में न डाले! अपने पुराने घावों को कपड़ों मे न छिपाये?! इतना असभ्य तो नहीं है किसान । हमारा अन्नदाता!!! (जिसे इन्हीं लोगों ने यह नाम दिया है, ठगने के लिये)
कुर्ता पैजामा पहन कर किसान आंदोलन करता तो यही आलोचक उसे किसान न कह कर नेता कहते । पैंट शर्ट में है तो भी कहते हैं ---ये किसान हो ही नहीं सकते ये तो पैंट शर्ट में है । अगर नंगे बदन बेचारा किसान आ जाये तो ये ही तरह तरह के गंदा आरोप लगाते हैं । असल मे यह आलोचक वर्ग किसान का वर्गीय शत्रु है । ये किसान को तभी किसान मानेंगे जब वह खेतों में ही मैला कुचैला जी, मर रहा हो और आत्महत्या की कगार पर हो ।
[क्रमश: कई किश्तों में ]
राजकुमार सचान "होरी"
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
Facebook /Farming with Hori
Monday, June 4, 2018
अन्नदाता कह कर ठगा गया
अन्नदाता कह कर ठगने का काम हुआ है किसानों को इस देश मे सदियों से । इतिहास के किसी काल को देखिये किसान की माली हालत ठीक नहीं रही । अंग्रेजों के समय सबसे अधिक किसान की हालत खराब हुई । तत्कालीन समय के किसानों की इतनी दुर्दशा थी कि वह भिखारी की श्रेणी में पहुंच गया था । जमीदारों ने तो उसकी रीढ़ ही तोड़ दी थी । पर इसी काल मे कुछ कवियों ने उसको बेवकूफ बनाया यह कह कर कि ------ उत्तम खेती मध्यम बान । निषिध चाकरी भीख निदान ।। जिन कवियों ने यह लिखा उनके परिवारों ने कभी खेती नहीं की पर सत्ता के साथ साजिश करके ऐसे लोगों ने किसानों के अंदर के विद्रोह को कम किया । बेचारा किसान हाड़ तोड़ मेहनत करता रहा और भुलावे में रहा कि उत्तम खेती है ।
एक और शब्द किसान के लिए गढ़ा गया --- 'अन्नदाता' । वह इस शब्द के माध्यम से व्यवस्था से फिर ढगा गया । वह स्वतंत्र भारत में भी भूखों मरता रहा, आत्महत्या करने को विवश होता रहा पर अन्नदाता नाम से खुश हो कर खेती में मरता खपता रहा । अन्नदाता किस बात का खुद और उसका परिवार अन्न, और जरूरी रोटी कपड़ा, मकान के लिये रोये लेकिन अन्नदाता बना रहे ।
एक और नारा उसे ठगने के लिये दिया गया कि --- जय जवान, जय किसान । जब कि सत्ता ने किसानों और जवानों की उपेक्षा ही की । क्या 70 साल काफी नहीं थे किसानों की माली हालत ठीक करने के लिए? किसानों की लागत बढ़ती गयी पर विक्री मूल्य इतना ही बढ़ा कि खेती की आमदनी कम होती रही जिससे किसान बुरी दशा में आता गया । इस देश की सत्ता का चरित्र शहरी रहा है और अभी भी है, उसने किसानों के लिये दिल से कभी काम किया ही नहीं । बस वोटों के लिये एक रश्म अदायगी भर होती रही ।
एक तो सरकारों को चाहिए कि कृषि पर जनसंख्या का भार कम करे । आज 30% जनसंख्या का बोझ ही कृषि उठा सकती है पर है 70% ,यह 40% का अतिरिक्त भार खेती से शीघ्र कम करना जरूरी है । दूसरा उपाय मार्केटिंग को आधुनिक डिजिटल बनाना । किसानों से उपभोक्ता के बीच मे सरकारी और गैर सरकारी बिचौलियों की भरमार है और ये सारे किसानों को मिलने वाले पैसे की बन्दरबांट करते आये हैं । मंडी समितियों का ढांचा किसान हितैषी कभी नहीं रहा । मंडियों में आढ़ती, बिचौलिये पूल कर लेते हैं और किसान के उत्पाद को बहुत कम पैसों में नीलामी होने देते हैं । अक्सर किसान को अपनी सब्जियों का भाड़ा तक नहीं मिलता और वह मजबूर हो कर अपना सामान लागत से भी आधी, चौथाई कीमत में बेच जाता है या फिर सारी सब्जियां या अन्य उत्पादन गुस्से में फेंक कर चला जाता है । यह घटनायें आम हैं । आज किसानों की हड़ताल के समय जब ये शहरी ,किसान को दूध, सब्जियां सब्जियां सड़कों में फेंकते हुये देखते हैं तो आश्चर्य होता है या ये किसानों पर मूर्खता पूर्ण आरोप लगाते हैं ।
आज आवश्यकता यह है कि हम किसान को बेवकूफ बनाना बन्द करें । अन्नदाता कह कर या जय जवान जय किसान कह कर हम उसे बहुत ठग चुके हैं । लागत का निर्धारण जब तक सरकारों में बैठे शहरी बाबू करेंगे तब तक किसानों का यही हाल रहेगा । अभी समय है सरकारी, शहरी बाबुओ चेत जाओ अन्यथा किसानों को अगर मरना आता है तो तुम्हारा दाना पानी बन्द करना भी आता है ।
राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
www.bauddhiksangh.com
एक और शब्द किसान के लिए गढ़ा गया --- 'अन्नदाता' । वह इस शब्द के माध्यम से व्यवस्था से फिर ढगा गया । वह स्वतंत्र भारत में भी भूखों मरता रहा, आत्महत्या करने को विवश होता रहा पर अन्नदाता नाम से खुश हो कर खेती में मरता खपता रहा । अन्नदाता किस बात का खुद और उसका परिवार अन्न, और जरूरी रोटी कपड़ा, मकान के लिये रोये लेकिन अन्नदाता बना रहे ।
एक और नारा उसे ठगने के लिये दिया गया कि --- जय जवान, जय किसान । जब कि सत्ता ने किसानों और जवानों की उपेक्षा ही की । क्या 70 साल काफी नहीं थे किसानों की माली हालत ठीक करने के लिए? किसानों की लागत बढ़ती गयी पर विक्री मूल्य इतना ही बढ़ा कि खेती की आमदनी कम होती रही जिससे किसान बुरी दशा में आता गया । इस देश की सत्ता का चरित्र शहरी रहा है और अभी भी है, उसने किसानों के लिये दिल से कभी काम किया ही नहीं । बस वोटों के लिये एक रश्म अदायगी भर होती रही ।
एक तो सरकारों को चाहिए कि कृषि पर जनसंख्या का भार कम करे । आज 30% जनसंख्या का बोझ ही कृषि उठा सकती है पर है 70% ,यह 40% का अतिरिक्त भार खेती से शीघ्र कम करना जरूरी है । दूसरा उपाय मार्केटिंग को आधुनिक डिजिटल बनाना । किसानों से उपभोक्ता के बीच मे सरकारी और गैर सरकारी बिचौलियों की भरमार है और ये सारे किसानों को मिलने वाले पैसे की बन्दरबांट करते आये हैं । मंडी समितियों का ढांचा किसान हितैषी कभी नहीं रहा । मंडियों में आढ़ती, बिचौलिये पूल कर लेते हैं और किसान के उत्पाद को बहुत कम पैसों में नीलामी होने देते हैं । अक्सर किसान को अपनी सब्जियों का भाड़ा तक नहीं मिलता और वह मजबूर हो कर अपना सामान लागत से भी आधी, चौथाई कीमत में बेच जाता है या फिर सारी सब्जियां या अन्य उत्पादन गुस्से में फेंक कर चला जाता है । यह घटनायें आम हैं । आज किसानों की हड़ताल के समय जब ये शहरी ,किसान को दूध, सब्जियां सब्जियां सड़कों में फेंकते हुये देखते हैं तो आश्चर्य होता है या ये किसानों पर मूर्खता पूर्ण आरोप लगाते हैं ।
आज आवश्यकता यह है कि हम किसान को बेवकूफ बनाना बन्द करें । अन्नदाता कह कर या जय जवान जय किसान कह कर हम उसे बहुत ठग चुके हैं । लागत का निर्धारण जब तक सरकारों में बैठे शहरी बाबू करेंगे तब तक किसानों का यही हाल रहेगा । अभी समय है सरकारी, शहरी बाबुओ चेत जाओ अन्यथा किसानों को अगर मरना आता है तो तुम्हारा दाना पानी बन्द करना भी आता है ।
राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
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Sunday, June 3, 2018
किसान का भला हो तो कैसे?
सत्ता को दलीय आधार के अलावा एक अन्य आधार पर देखेंगे तब किसानों की दुर्दशा 1947 के बाद की ही नहीं अपितु पहले की भी समझ जायेंगे । आइये सत्ता का चरित्र समझते हैं । सत्ता के चार स्तम्भों को एक एक कर समझते हैं ।
पहले कार्यपालिका जिसमें कर्मचारी और अधिकारी आते हैं । इस वर्ग में शहरों में रहने वाले परिवारों से काफी संख्या में आते हैं जो कभी कभार गांव गये भी होंगे तो पिकनिक मनाने ।फिर जब सरकारी सेवाओं या प्राइवेट सेवाओं मे आये तो इनको न गांव का अनुभव होता है न ही विशेष लगाव । ग्रामीण विकास इनके लिए बस सरकारी कर्तव्य भर होता है जिसमें इनकी रुचि आंकड़े बनाने, गिनाने,दिखाने मे ज्यादा होती है । इनके शहरी परिवारों का वातावरण भी कभी किसानों से सहानुभूति का नहीं रहा तो ये किसान हितैषी संस्कार कहां से पाते । इस वर्ग में दूसरे वे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों से आये तो हैं पर सब के सब सेवा काल में किसी न किसी कस्बे, नगर या महानगर में रहने लगे । यद्यपि ये किसानों की योजनाओं में दूसरों की अपेक्षा मन अधिक लगाते हैं परन्तु धीरे धीरे शहरी वातावरण में रहते रहते ये भी गांवों और किसानों व कृषि मजदूरों के लिये बाहरी से होने लगते हैं । ये लोग 100% क्या 50% दे लें तो बड़ी बात । इनकी कोशिश यही रहती है कि इनके परिवार में जो गांव में रह गये हैं उन्हें भी शहरों में ले आयें । समस्त कार्यपालिका किस तरह और कितना ग्रामीण और किसान हितैषी बचता है आप खुद जान सकते हैं ।
अब विधायिका पर चर्चा करते हैं । यद्यपि विधायकों, सांसदो की सीटें शहरी से अधिक ग्रामीण हैं । पर यह देखना बड़ा तर्क संगत है कि जो शहरी क्षेत्रों के जनप्रतिनिधि हैं वे तो किसानों, ग्रामीणों के लिये कान, आंख बन्द रखते ही हैं लेकिन जो ग्रामीण क्षेत्रों के जन प्रतिनिधि हैं वे भी केवल वोट मांगने, शादी विवाह, गमी मे ही वहां जाते हैं या फिर किसी दुर्घटना में बस । शिलान्यास, उद्घाटन के समय को छोड़ दें तो किसानों, गांवों से इनका कुछ लेना देना नहीं । ऐसा क्यों होता है? ये सारे के सारे जनप्रतिनिधि गांवों में न रहकर शहरों मे रहने लगते हैं, इनका परिवार शहरों में बस जाता है और ये गांवों मे बस अधिकारियों की तरह ही दौड़ा करने भर जाते हैं । अलबत्ता ये गमी, शादी, विवाह इसलिए नहीं छोड़ते हैं कि उसी से इनका वोट बैंक बनता है । यह आदत और तरीका हर पार्टी के नेता का होता है तो किसान, ग्रामीण करे तो क्या करे? सारी की सारी विधायिका एकसी । ये कभी इसको हराते हैं कभी उसको पर जन प्रतिनिधि तो सारे के सारे शहरी मिट्टी के बन जाने के कारण इनके लिए घड़ियाली आँसू ही बहाते हैं । इस तरह किसान और ग्रामीण विधायिका से लगातार ठगा जाता है ।
न्यायपालिका और मीडिया को एक साथ लेते हैं । न्यायपालिका का चरित्र तो हमेशा शहरी रहा कार्यपालिका की तरह ही । ये किसी न किसी शहर में रहते हैं और रिटायर होने पर भी नगरों में ही बस जाते हैं । ग्रामीण बेचारा तो हो सकता है पर उसके लिए समय ही कहां । कार्य भी शहरों में और कार्य के बाद भी शहरी जीवन । कहां किसानों, ग्रामीणों की समस्याओं से आमना सामना पड़ता है । अधिक से अधिक मुवक्किल के रूप में किसान, गांव वाला दिख गया । बोल वह भी नहीं सका वकील साहब जो हैं जिनका सबसे बड़ा काम तारीख पर तारीख लेना भर होता है । अब चतुर्थ स्तम्भ -मीडिया की बात कर लें । इसका तो इतना शहरी चरित्र होता है कि अगर गांवों मे आपदायें न आयें, किसान आत्महत्या न करें, देशी शराब पीकर ग्रामीण न मरें, गांव की बालिकाओं से बलात्कार न हो तो समाचार ही न बने । या फिर नेता या अधिकारी का दौड़ा हो जाये तो प्रायोजित मीडिया रहेगा ही ।
सत्ता के चारो पाये शहरी थे, हैं और सम्भावना है कि रहेंगे भी । जब तक सत्ता का चरित्र नहीं बदलेगा बहुत उम्मीद इस व्यवस्था से नहीं है । इसलिए किसानों, ग्रामीणों का उत्थान हो, विकास हो, आमूलचूल परिवर्तन करना होगा । अगर एक ही कदम उठा लिया जाय कि ये चारो वर्ग अपनी सेवाकाल का आधा समय गांव में रहेंगे या इसी तरह का कोई उपाय तो फिर देखिये गांवों, किसानों का भाग्य बदल जाये ।
राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
www.bauddhiksangh.com
पहले कार्यपालिका जिसमें कर्मचारी और अधिकारी आते हैं । इस वर्ग में शहरों में रहने वाले परिवारों से काफी संख्या में आते हैं जो कभी कभार गांव गये भी होंगे तो पिकनिक मनाने ।फिर जब सरकारी सेवाओं या प्राइवेट सेवाओं मे आये तो इनको न गांव का अनुभव होता है न ही विशेष लगाव । ग्रामीण विकास इनके लिए बस सरकारी कर्तव्य भर होता है जिसमें इनकी रुचि आंकड़े बनाने, गिनाने,दिखाने मे ज्यादा होती है । इनके शहरी परिवारों का वातावरण भी कभी किसानों से सहानुभूति का नहीं रहा तो ये किसान हितैषी संस्कार कहां से पाते । इस वर्ग में दूसरे वे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों से आये तो हैं पर सब के सब सेवा काल में किसी न किसी कस्बे, नगर या महानगर में रहने लगे । यद्यपि ये किसानों की योजनाओं में दूसरों की अपेक्षा मन अधिक लगाते हैं परन्तु धीरे धीरे शहरी वातावरण में रहते रहते ये भी गांवों और किसानों व कृषि मजदूरों के लिये बाहरी से होने लगते हैं । ये लोग 100% क्या 50% दे लें तो बड़ी बात । इनकी कोशिश यही रहती है कि इनके परिवार में जो गांव में रह गये हैं उन्हें भी शहरों में ले आयें । समस्त कार्यपालिका किस तरह और कितना ग्रामीण और किसान हितैषी बचता है आप खुद जान सकते हैं ।
अब विधायिका पर चर्चा करते हैं । यद्यपि विधायकों, सांसदो की सीटें शहरी से अधिक ग्रामीण हैं । पर यह देखना बड़ा तर्क संगत है कि जो शहरी क्षेत्रों के जनप्रतिनिधि हैं वे तो किसानों, ग्रामीणों के लिये कान, आंख बन्द रखते ही हैं लेकिन जो ग्रामीण क्षेत्रों के जन प्रतिनिधि हैं वे भी केवल वोट मांगने, शादी विवाह, गमी मे ही वहां जाते हैं या फिर किसी दुर्घटना में बस । शिलान्यास, उद्घाटन के समय को छोड़ दें तो किसानों, गांवों से इनका कुछ लेना देना नहीं । ऐसा क्यों होता है? ये सारे के सारे जनप्रतिनिधि गांवों में न रहकर शहरों मे रहने लगते हैं, इनका परिवार शहरों में बस जाता है और ये गांवों मे बस अधिकारियों की तरह ही दौड़ा करने भर जाते हैं । अलबत्ता ये गमी, शादी, विवाह इसलिए नहीं छोड़ते हैं कि उसी से इनका वोट बैंक बनता है । यह आदत और तरीका हर पार्टी के नेता का होता है तो किसान, ग्रामीण करे तो क्या करे? सारी की सारी विधायिका एकसी । ये कभी इसको हराते हैं कभी उसको पर जन प्रतिनिधि तो सारे के सारे शहरी मिट्टी के बन जाने के कारण इनके लिए घड़ियाली आँसू ही बहाते हैं । इस तरह किसान और ग्रामीण विधायिका से लगातार ठगा जाता है ।
न्यायपालिका और मीडिया को एक साथ लेते हैं । न्यायपालिका का चरित्र तो हमेशा शहरी रहा कार्यपालिका की तरह ही । ये किसी न किसी शहर में रहते हैं और रिटायर होने पर भी नगरों में ही बस जाते हैं । ग्रामीण बेचारा तो हो सकता है पर उसके लिए समय ही कहां । कार्य भी शहरों में और कार्य के बाद भी शहरी जीवन । कहां किसानों, ग्रामीणों की समस्याओं से आमना सामना पड़ता है । अधिक से अधिक मुवक्किल के रूप में किसान, गांव वाला दिख गया । बोल वह भी नहीं सका वकील साहब जो हैं जिनका सबसे बड़ा काम तारीख पर तारीख लेना भर होता है । अब चतुर्थ स्तम्भ -मीडिया की बात कर लें । इसका तो इतना शहरी चरित्र होता है कि अगर गांवों मे आपदायें न आयें, किसान आत्महत्या न करें, देशी शराब पीकर ग्रामीण न मरें, गांव की बालिकाओं से बलात्कार न हो तो समाचार ही न बने । या फिर नेता या अधिकारी का दौड़ा हो जाये तो प्रायोजित मीडिया रहेगा ही ।
सत्ता के चारो पाये शहरी थे, हैं और सम्भावना है कि रहेंगे भी । जब तक सत्ता का चरित्र नहीं बदलेगा बहुत उम्मीद इस व्यवस्था से नहीं है । इसलिए किसानों, ग्रामीणों का उत्थान हो, विकास हो, आमूलचूल परिवर्तन करना होगा । अगर एक ही कदम उठा लिया जाय कि ये चारो वर्ग अपनी सेवाकाल का आधा समय गांव में रहेंगे या इसी तरह का कोई उपाय तो फिर देखिये गांवों, किसानों का भाग्य बदल जाये ।
राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
www.bauddhiksangh.com
Saturday, June 2, 2018
बौद्घिक संघ, भारत के ब्लाग लेखक बने
बौद्घिक संघ, भारत के ब्लाग लेखक बने । आप दी गई ईमेल पर लेख, विचार, रचनायें ,बौद्घिक गतिविधियां भेजें ----- rajkumarhori.bauddhiksangh@blogger.com
Friday, June 1, 2018
देवालय नहीं, पुस्तकालय
देवालय नहीं पुस्तकालय
पुस्तकें ज्ञान का भण्डार हैं / यद्यपि अब डिजिटल युग में ज्ञान के नए नए साधन आ गए हैं ,लेकिन आज भी पुस्तकों का अपना विशेष स्थान है /बचपन से आरम्भ कर हम अंत समय तक किसी न किसी रूप में पुस्तकों के साथ रहते हैं / प्रत्येक घर में बौद्धिक विकास के लिए पुस्तकों तथा ज्ञान के अन्य साधनों का होना बहुत जरूरी है / शिक्षा ही पशु से हमें मनुष्य बनाती है /
हजारों सालों से जो परिवार शिक्षा से दूर रहे वे ही जीवन की दौड़ में पिछड़ गए / स्वतंत्र भारत में जब शिक्षा सब के लिए सुलभ है तो हमें चाहिए कि इसे जरूर गृहण करें / इतना ही नहीं शिक्षित हो कर किसी रोजगार में लगने के बाद भी शैक्षिक और बौद्धिक कार्य अवश्य करते रहें जैसे समाचार पत्र ,पत्रिकाएं निकालना ,न्यूज़ पोर्टल ,चैनल स्थापित करना , पुस्तकें लिखना आदि आदि कार्य /
ज्ञान का भण्डार घर घर स्थापित करने के लिए एक घरेलू पुस्तकालय हर घर बनाया जाय / अपने शयन कक्ष या ड्राइंग रूम में रैक और अलमारी में कुछ जरूरी पुस्तकें , पत्रिकाएं रखें। सोसल मीडिआ में भी सक्रिय रहें और दुनिया भर से विचारों और ज्ञान का आदान प्रदान करें / अब आपका यह घरेलू पुस्तकालय बहुत बड़ा देवालय बन जाएगा / पूरे परिवार में संस्कार आ जाएंगे और सभी इसको ही देवालय मानने लगेंगे / बाहर देवी देवता ,ईश्वर की तलाश की जरूरत समाप्त / अगर आप ईश्वरवादी हैं तो आपका ईश्वर इसी कक्ष में है / आप देवी देवता मानते हैं तो लेखनी की आराधना करिये जिस के द्वारा ज्ञान मिला है /
देखते देखते आप और आपका परिवार झूठे कर्मकांडों से बचेगा / पूजा स्थलों में नाहक दान दक्षिणा से बचेगा और पण्डे पुजारियों के मकड़जाल से भी मुक्त होगा / फिर क्या आपका समाज शैक्षिक और बौद्धिक रूप से आगे निकल जाएगा और राष्ट्र की मुख्य धारा में आ जाएगा / इस सब से जब पिछड़े ,दलित समाज ऊपर उठेंगे तब देश का समग्र विकास होगा और भारत दुनियाँ में विश्व गुरू फिर से बनेगा /
तो देर किस बात की बौद्धिक संघ ,भारत से जुड़िये और अपने घर में स्थापित करिये एक घरेलू पुस्तकालय / याद रखिये "देवालय नहीं , पुस्तकालय "
राज कुमार सचान "होरी"
राष्ट्रीय अध्यक्ष ,बौद्धिक संघ भारत www.bauddhiksangh.com , email bauddhiksangh@gmail.com whats app 9958788699
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