किसान आंदोलन प्रतिक्रियायें और उनके उत्तर --लेख के प्रथम भाग में इस बात का उत्तर दिया था कि आंदोलन करने वाले किया तो सूट बूट में हैं । इसी को आगे बढ़ाते हैं । कुछ देखने वालों ने यहां तक कहा कि आंदोलनकारी बड़ी बड़ी गाड़ियों में आये ये किसान नहीं हो सकते । ये नेता हैं जो विपक्षी पार्टी के हैं ।
दुनियांमे बहुत सारे आंदोलन होते हैं जिनमे आंदोलन करने वाले तो होते ही हैं साथ में उनसे सहानुभूति रखने वाले भी आ जाते हैं । यह किसानों के आंदोलन में भी हो रहा है । पर कुछ शहरी, कुछ सत्ता के पक्षधर ऐसे पेश आये किसानों से कि सिद्ध हो गया कि उनको कथित अन्नदाता से सहानुभूति तो दूर बल्कि नफरत यहां तक है कि जो उनसे सहानुभूति व्यक्त करने जायें वे भी बुरे । क्या किसान जिसको दिखावटी ही सही तुम अन्नदाता कहते हो को बुरे दिनों में, संघर्ष में साथ देना बुरा है? पाप है?
होना तो यह चाहिये था कि जिसको देश अपना अन्नदाता मानता है उसे आंदोलन ही न करना पड़ता और अगर करना पड़ा तो सत्ता पक्ष और विपक्ष आगे आ कर बढ़ चढ़ कर साथ देता । कम से जो मजाक उड़ाया गया, भावनात्मक चोट पहुंचायी गयी वह तो न होता । क्या जो आंदोलन में साथ दे रहे थे और किसान नहीं थे कोई कानून है कि वे साथ देने नहीं आ सकते थे? या अगर आते भी तो पैदल आते अपनी मोटरसाइकिल, कार, बस से न आते?? यह सोच गिरावट की पराकाष्ठा है । किसान का लगता है कोई नहीं । उसके संगठनों में ताकत नहीं ।
आंदोलन की एक अन्य प्रतिक्रिया है कि सच्चा किसान अपनी सब्जियां, दूध, अनाज सड़कों पर फेंक नहीं सकता । ये किसान हो ही नहीं सकते । ये फर्जी हैं । किसी न किसी राजनैतिक दल के लोग हैं, नेता हैं । सामान्य दिनों मे किसान ही क्या कोई भी अपनी खून पसीने की कमाई बरबाद नहीं कर सकता, सड़कों में फेंक नहीं सकता । परन्तु आलोचना करने वाले यह भूल गये कि किसान की आमदनी न होने से कितना पीड़ित है, दुखी है । हर साल हजारों की संख्या में आत्महत्या करता है तो क्या ऐसी भयंकर स्थिति में वह कुछ भी उन्माद में नहीं कर सकता?
उन्माद में व्यक्ति तो सब होश हवास भूल कर पहले अपने प्यारे बच्चों को, पत्नी को मार कर खुद भी आत्महत्या कर बैठता है । ये तो केवल अपना सामान सड़कों में फेंकना तक था । एक किसान एक जगह अनशन पर बैठा और मर गया । यह क्या है ? अरे शहरी बाबुओं, किसान विरोधियों! कुछ तो लिहाज करो, शर्म करो, अगर किसान का पैदा किया हुआ कुछ भी खाते हो । किसान की हाय से बचो । जिस देश ने अपने किसानों, अन्नदाताओं का पेट नहीं भरा वह कभी पनप ही नहीं सकता । देश के किसान को उसकी फसल का पैसा न दे कर विदेश से अनाज, सब्जियां, चीनी आदि खरीद कर किसान के पेट मे लात मारना कभी किसी के लिए सुखकर नहीं हुआ ।
किसानों की पीड़ा सरकारें समझें तो पर दलगत राजनीति और शहरी समाज समझने नहीं देता जिनको किसानों का दु:ख, दर्द बनावटी और ढोंग लगता है । किसानों के पास आज कोई टिकैत नहीं है । आंदोलन तो आज नहीं कल खत्म होगा ही पर किसान के विरोधियों ! अपने लिये नर्क मत तैयार करो । किसान से भी यही विनती है कि वह देखे कि घाटे की खेती कब तक करेगा? शहरी तो एक दो साल भी खेती न करेगा जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी वह कर रहा है ,मर रहा है । ----------------
( क्रमश: आगे जारी)
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राजकुमार सचान होरी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बौद्धिक संघ, भारत
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